छत्तीसगढ़...एक अइसे गढ़ जिहां के कला-संस्कृति म आदिकाल के कई बड़ जुन्ना परंपरा हे. इही परंपरा म हमर इहाँ अड़बड़ अकन छोटे-बड़े मेला-मड़ई हे. जेन आजो कतको जगह अपन जुन्ना रूप म, तो कतको जगह कुछ-कुछ बदले रूप म देखें बर मिलथे. बस्तर ले लेके सरगुजा अउ नांदगांव ले लेके रइगढ़ तक मेला-मड़ई के जेन इतिहास हे वो ह जुन्ना होय के संग-संग, धरम-करम अउ संस्कृति के महत्ता ल घलोक गठियाए हुए हे. कहे जाथे के मेला-मड़ई ह संगी-साथी, नता-दारी, जात-समाज-गांव-गंवई के मिलाप के जगह होथे. जिहां एक संगरहा सब के सब जुरियाथे.
नदिया-नरवा के संगम म अस्सान, मंदिर-देवाला के दरसन, पूजा पाठ, धरम-करम करके पुन कमाय के जगह होथे. किसम-किसम के हाट-बजार अउ दुकान घूमे के संग किसम-किसम के झूला झूले, खरीदी करे अउ जिनिस देखें बर घलोक मेला-मड़ई म मिलथे. छत्तीसगढ़ म मेला-मड़ई कुंवार महीना ले ही लगे के सुरू हो जथे, जेन ह फागुन अउ चईत महीना तक लगथे. वइसे हमर पुन्नी मेला के बड़ महत्ता हे. कातिक पुन्नी और माघी पुन्नी म कई बड़का मेला भराथे. येमा राजिम पुन्नी मेला, सिवरीनरायन मेला, रइपुर महादेव घाट मेला, दामाखेड़ा मेला, मदकूदीप मेला जइसे जगह सामिल हे.